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Wednesday, 27 October 2010

यहाँ हर सिम्त रिश्ते हैं जो अब मुश्किल निभाना है

बहुत आसाँ है रो देना, बहुत मुश्किल हँसाना है
कोई बिन बात हँस दे-लोग कहते हैं "दिवाना है"

हमारी ख़ुशमिज़ाजी पे तुनक-अंदाज़ वो उनका-
"तुम्हें क्यों हर किसी को हमने क्या बोला बताना है?"

मशालें ख़ूँ-ज़दा हाथों में, कमसिन पर शबाबों सी-
"चलो जल्दी चलें,फिर से किसी का घर जलाना है"

ये लाचारी कि किस्सागो हुए हम फ़ित्रतन यारो-
हमारी हर शिकायत पर वो कहते थे "फ़साना है"

किसी की दोस्ती हो तो कड़ी राहें भी कट जाएँ
यहाँ हर सिम्त रिश्ते हैं जो अब मुश्किल निभाना है

मेरी मजबूरियों को तुम ख़ुशी का नाम मत देना
यहाँ तुम भी नहीं हो अब बड़ा मुश्किल ज़माना है

वो मंज़र झील के,जंगल के,ख़ुश्बू के,चनारों के!
इन्हें भी आज ही कम्बख़्त शायद याद आना है

Friday, 27 August 2010

अश'आर चन्द यूँ भी

आज के हालात का मैं तब्सरा हूँ
ख़ुश-तबस्सुम-लब मगर अन्दर डरा हूँ

बस गए जो वो किसी शर्त छोड़ते ही नहीं
टूटा-फूटा सा पुराना मकान मेरा दिल!

इस राह पे चलना भी ख़ुद हासिले-सफ़र है
मंज़िल क़रीब है पर दुश्वार रहगुज़र है


आए हैं, मुँह फुलाए बैठे हैं
लगता है ख़ार खाए बैठे हैं
उधर लाल-आँखें, चढ़ी हैं भौंहें
हम इधर दिल बिछाए बैठे हैं

Friday, 20 August 2010

जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए

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जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए
ख़ैरियत-ख़ैरियत का शोर मचाते रहिए


वो जो सह लें, न कहें-उनको सहाते रहिए
वर्ना कह दें तो मियाँ ! चेहरा छुपाते रहिए


शम्मा यादों की मज़ारों पे जलाते रहिए
रोज़ इक बेबसी का जश्न मनाते रहिए


हुस्न गुस्ताख़ तमन्ना से दूर? नामुम्किन!
लाख बारूद को आतिश से बचाते रहिए


या तो खा जाइए, या रहिए निवाला बनते,
शाम के भोज का दस्तूर निभाते रहिए
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और शे'र हैं, अभी फुर्सत नहीं है टाइप करने की. बाद में लाऊँगा...

Friday, 6 August 2010

उन्होंने कह दिया अच्छा सुख़न है


ज़माना पेश हम से ढंग से आए-
ज़माने को भी कोई तो बताए!


यही सोचे हैं बैठे सर झुकाए
वो देखें आज क्या तोहमत लगाए

उन्होंने कह दिया अच्छा सुख़न है
मेरे अश'आर ख़ुश-ख़ुश लौट आए


मुहब्बत की भी कोई उम्र तय है?
अगर अब है तो फिर आए-न-आए!


झरे दिन जैसे मुट्ठी रेत की, या
उमर-मछली फिसल दरिया में जाए
………उमर-मछ्ली फिसल दरिया में जाए!

Friday, 16 July 2010

क्या जाने

एक छोटी सी रुबाई:
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अदा की चोट - अदा क्या जाने
हया क्या है, भला वो क्या जाने
"अदा-वफ़ा-हया इक संग चहिए"-
ख़ुद को समझे हो क्या ख़ुदा जाने!

Thursday, 15 July 2010

शरीफ़ लोग आजकल वाले

सारे क़िस्से फ़रेब-छल वाले
शरीफ़ लोग आजकल वाले


शहर में सारे ऐब जंगल के
और शर्मिन्दा हैं जंगलवाले


हैं तो नाराज़,मगर कहते नहीं
नाते-रिश्ते प्रपञ्च-छल वाले


ज़हर उगलें, हमें क़ुबूल नहीं
पी लिये जाम हलाहल वाले


वफ़ा-ख़ुलूस-जुनूँ-सच-ईमाँ
अपने भी तौर हैं पागलवाले


हम नहीं झोंपड़ी-महल वाले
ठिकाने ढूँढे हैं मक़्तल वाले


वही तेवर, वही तिरछी चितवन
घूरते नैन भी काजल वाले


एक 'छ्म' और दिवाना घायल-
जाने कब समझेंगे पायल वाले!


वायदे झूठे वही 'कल' वाले
सारे अन्दाज़ हैं ग़ज़ल वाले
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एक मतला, एक हुस्ने-मतला का चलन तो आम है; मगर यहाँ काफ़िए की तंगी न थी, रदीफ़ भी ख़फ़ीफ़ न थी सो कई शे'र हो गए मतले के रंग में। अब क्या करूँ?
जो मक़्ता की जगह कब्ज़ाए हुए है - उस शे'र से ग़ज़ल कहनी शुरू हुई थी।
आजकल व्यस्तता ज़्यादा है - नए कलाम नहीं हैं ये। ये सब गज़लें ड्राफ़्ट में थीं, मार्च-अप्रैल में कह ली गयी थीं, शाया अब हो रही हैं।

Tuesday, 6 July 2010

वक़्त बदलते देखा

एक अजीब सी बात हो रही है। प्रशंसक होते हैं लोग रचनाओं के, रचनाकारों के या कलाकारों के (अमूमन)। एक प्रशंसक का अंदाज़ कुछ ऐसा है प्रशंसा का, मेरे इस ब्लॉग पर - कि मैं उसके प्रशंसा करने के तरीक़े का प्रशंसक बन गया हूँ।
सीखूँगा (ज़रूर सीख लूँगा) अपने इस प्रशंसक से ये अन्दाज़, मगर आज ये रचना उसी प्रशंसक को समर्पित कर रहा हूँ, स्नेह और शुभेच्छाओं सहित -

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हमने सूरज कभी उगते कभी ढलते देखा
आस्मानों का यहाँ वक़्त बदलते देखा

कमसिनी में उन्हें इक गुल पे मचलते देखा
और फिर फूल दिया जाना भी खलते देखा

जिनका हर हुक्म चला,सिक्का चला,बात चली
उन्हें पैदल भी अकेले यहीं चलते देखा

अब्र में पानी था कि आग जो अबके बरसी
धरा सुलगी, उधर आकाश उबलते देखा

ग़ुलाब गालों पे खिल-खिल के खिलाने वाले!
तुझे कलियों को दुपट्टे में मसलते देखा

Friday, 2 July 2010

आशिकी अपनी बेपढ़ी

ज़िन्दगी धूप थी कड़ी
ख़ुशनुमा एक-दो घड़ी

की गईं मुश्किलें खड़ी-
हिम्मतें ख़ुद हुईं बड़ी

ज़िन्दगी इस क़दर सहल !
कुछ यक़ीनन है गड़बड़ी

रात रूमानी वायदा -
सुब्ह ऑफ़िस की हड़बड़ी

नज़र-ए-आशिक तुनकमिज़ाज
जब मिली - तब कहीं लड़ी

दिल का ले-ले के इम्तेहाँ-
रो दी बरसात की झड़ी

ग़म अमावस की रात से-
ख़ुशी हाथों की फुलझड़ी

मुस्कराते हों सब अगर-
नज़र देखो कहाँ गड़ी

संग लाएँ वो फ़स्ले-गुल
फेर कर जादुई छड़ी

कुछ तमन्ना भी अपनी कम,
कुछ ज़रूरत नहीं पड़ी

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और ये शे'र इश्क़े-हक़ीक़ी में अर्ज़ है:
"हरेक शै में उसका नूर,
सबमें रू-ए-ख़ुदा जड़ी"


ये एक और शे'र पैदाइशी आशिक़ों के लिए अर्ज़ है :
(दर-अस्ल यही वो शे'र है जिससे इस ग़ज़ल का आग़ाज़ हुआ था):
हुस्न उनका लुग़त जदीद
आशिक़ी अपनी बेपढ़ी
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लुग़त = शब्दकोष
जदीद = आधुनिक, नवीनतम

Monday, 28 June 2010

बदलते मौसमों की ज़ात की बात

बदलते मौसमों की ज़ात की बात
धूप में ख़ुशनुमा बरसात की बात


दिन भी सूरज सा दहकता अंगार
रात भी सुलगे से हालात की बात


अपनी ख़ातिर थी वही काम की बात
टाल दी आपने जज़्बात की बात


इश्क़ है सब्र - हुस्न बेचैनी
कशिश दोनों की-करामात की बात


"कोई आ जायगा…" - "तो क्या!" पे ख़तम-
हर अधूरी सी मुलाक़ात की बात


चाँद बातूनी है मुँह खोल न दे -
बात चल निकले न फिर बात-की-बात


कड़े पहरों से गुमशुदा होकर -
मिली अख़बार में फिर रात की बात

Monday, 21 June 2010

लोगों को नींद देर रात तक नहीं आती

शे'र ख़ुद मिट गया ग़ज़ल होकर
प्रश्न शर्मिंदा रहा - हल होकर

बात ये है कि कभी कहा था -
"जबसे मेरा अफ़साना शहर में हुआ है आम
लोगों को नींद देर रात तक नहीं आती
"

कल ख़्याल आया कि क्यों न इसे ग़ज़ल की शक्ल दी जाए! सो कुछ बना तो - मगर वो शे'र न रहा। अब पसोपेश के तसव्वुर में हूँ - इसे किस शक्ल में जीने दिया जाए - शे'र को जो 'मदरप्लाण्ट' है, या नए अश'आर को जो नवांकुर हैं?
फ़िलहाल तो सोच में ही हूँ।
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होठों पे दिल-ज़ेहन की बात तक नहीं आती
उनकी कोई भी चाल-मात तक नहीं आती

अपनी कोई साज़िश भी घात तक नहीं आती
जाँ-बख़्शी* भी उनकी हयात* तक नहीं आती

हैं काम भलाई के या ऐयारी का आलम
दाएँ की ख़बर बाएँ हाथ तक नहीं आती#

जबसे मेरा अफ़साना शहर में हुआ है आम
ख़ुश-नाचते-गाते बरात तक नहीं आती

सूरज भी लगे जैसे न सोया हो रात भर
ख़ुद रात भी - अब देर रात तक नहीं आती

जिनके बिना इक दिन कभी जीना मुहाल था
ता'ज्जुब है कि अब उनकी याद तक नहीं आती

तन्हाइयाँ हैं, बस! न ख़ुशी है - न कोई ग़म
बेकैफ़* उम्र क्यूँ वफ़ात* तक नहीं आती
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जाँ-बख़्शी = जीवन-दान
हयात = जीवन, ज़िन्दगी
बे-कैफ़ = आनन्द-रहित, बेमज़ा, जब सारे नशे उतर चुके हों
वफ़ात = मृत्यु, मोक्ष, मुक्ति
#ईसा का संदेश :  "भलाई का काम इस तरह करो कि दाएँ हाथ को बाएँ हाथ की ख़बर न हो""

Saturday, 19 June 2010

बातों बातों में चली आप की बात : लोग सब समझे क़ायनात की बात

कभी चुप हैं, तो कभी आप की बात
और फिर आपकी - बस आपकी बात
 
फूल-तितली-बहार-झरनों के मिस
बातों-बातों में चली आपकी बात

लोग सब समझे क़ायनात की बात
हम तो करते रहे बस आपकी बात

जाने क्या-क्या कहा, किस-किस से कहा
आप से कैसे कहें आप की बात

कहें दीवाना, जो हँसते हैं - हँसें
लोग क्या जानें - क्या है आपकी बात

Friday, 11 June 2010

लगा माँ की मुझे दुआ सा कुछ

शायरी - ग़ज़लें, नज़्में क्या-क्या कुछ
लगा माँ की मुझे दुआ सा कुछ

जाने जुगनू कि हौसले के चराग़
यादों-यादों जला बुझा सा कुछ

फिर से कुछ सोच लिया शाम ढले
हुआ फिर दिल से लापता सा कुछ

बेरूख़ी भी है, और ख़फ़ा भी नहीं-
ज़ुल्म है, पर लगे अदा सा कुछ

बूढ़े पत्तों की बेबसी कि उन्हें
कहे पतझड़ भी बेवफ़ा सा कुछ

अब के सावन में घटा के अंदाज़
साथ रहते हुए जुदा सा कुछ

कुछ कहा हमने - लोग कुछ समझे
और हर शख़्स फिर ख़फ़ा सा कुछ

जुड़ते जाते हैं लाखों मंसूबे
दिल ही दिल में है टूटता सा कुछ

मुझसे पूछी है मेरी राय तो अब
देख ले तू भी आइना सा कुछ
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अलहदा -

और अश'आर मैं कह सकता था
पर है अब मुझमें अनमना सा कुछ

इश्क़ का फाड़ के ख़त गुस्से में
हुस्न अब फिर है मेहरबाँ सा कुछ

तेरी रहमत पे शक़ नहीं, लेकिन
अपनी बर्बादी - क़ायदा सा कुछ

हमको सारे तेरे इल्ज़ाम क़ुबूल
और फिर भी तुझे गिला सा कुछ!

"एक बीमार भी बाक़ी न बचे"
बँटा फिर ज़हर या दवा सा कुछ

हम ये समझे - कि कुछ नहीं समझे
ज़माना समझा जाने क्या-क्या कुछ

Wednesday, 9 June 2010

कितना वो पानी में है

ख़ुल्द में कब वो मज़ा जो दुनिया-ए-फ़ानी में है
होश क्या जाने कि क्या-क्या है जो नादानी में है


हौसलों का, हिम्मतों का इम्तेहाँ है ज़िन्दगी
जो मज़ा मुश्क़िल में है, वो ख़ाक़ आसानी में है


जो सदा मँझधार से, लौटा भँवर को जीतकर;
साहिलों पर बहस अब तक, कितना वो पानी में है


जीना बिन-ख़्वाहिश के - या लेकर अधूरी हसरतें
इत्तिक़ा दर-अस्ल ख़ुद ख़्वाहिश की तुग़यानी में है


ख़ुदपरस्ती में जिया, ख़ुद के लिए मरता रहा
ख़्वाहिशे-जन्नत में वो भी सफ़हे-क़ुर्बानी में है
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ख़ुल्द = स्वर्ग, जन्नत
फ़ानी = नश्वर, नाशवान
साहिल = किनारा, तट
इत्तिक़ा = संयम, इन्द्रिय निग्रह
तुग़यानी = बाढ़, उफ़ान
ख़्वाहिशे-जन्नत = स्वर्ग की इच्छा
सफ़हे-क़ुर्बानी = क़ुर्बानी / बलिदान देने के लिए लगी हुई क़तार

Saturday, 5 June 2010

लोग पत्थर उठाए फिरते हैं!

लोग पत्थर उठाए फिरते हैं
और हम सर उठाए फिरते हैं

दुश्मनों से गिला भला कैसा
दोस्त ख़ंजर उठाए फिरते हैं

जब कहे बादबाँ* - "चलो", चल दें!
हम भी लंगर उठाए फिरते हैं

ग़ैर पे उँगली उठे या न उठे-
हम पे अक्सर उठाए फिरते हैं

आस्माँ तू उठा उन्हें जो तुझे-
रोज़ सर पर उठाए फिरते हैं
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बादबाँ = पाल के सहारे चलने वाली नौका का नाविक-निर्देशक (कैप्टेन : आज के जलयान-पोत-नौका का)
यहाँ भावार्थ ऊपर से बुलावा आने और उसके लिए आसक्ति का लंगर उठाकर तैयार बैठे होने का है।

Friday, 4 June 2010

दिल ये नादाँ फिर दिवाना हो गया !

उस गली में आना-जाना हो गया
दिल का यारो आबो-दाना हो गया


आपसे सुनने-सुनाने की सुनी-
किस क़दर दुश्मन ज़माना हो गया


कोई तहज़ीबन भी मुस्काया अगर
दिल ये नादाँ-फिर दिवाना हो गया


ये इबादत - उसके नक़्शे-पा* दिखे
फ़र्ज़ अपना सर झुकाना हो गया


सिर्फ़ दो दिन आपसे मिलते हुए
जाने कब रिश्ता पुराना हो गया
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इबादत = उपासना, पूजा
नक़्शे-पा = पद-चिह्न
तहज़ीबन = औपचारिकता-वश, शिष्टाचार-वश

Sunday, 30 May 2010

साक़िया और पिला, और पिला

साक़िया और पिला, और पिला
सितम कम गुज़रे अभी और जिला

कोई शिक्वा, न शिकायत, न गिला
ऐसे देते हैं मुहब्बत का सिला !

इरादतन कुरेदता हो जो ज़ख़्म,
ऐसा दुनिया में पराया न मिला

हमने उसको बना लिया माली
जिसकी मर्ज़ी बिना पत्ता न हिला

वही रिमझिम है - वही इन्द्रधनुष
या ख़ुदा याद फिर उनकी न दिला

Tuesday, 25 May 2010

ज़माना हुआ

हमको रूठे-मने ज़माना हुआ
उनसे बिछड़े-मिले ज़माना हुआ


गर्द आईनों पे, शर्मिन्दा हम
सर झुके ही झुके ज़माना हुआ


अच्छे-अच्छों की नीयतें देखीं
अपनी बिगड़े हुए ज़माना हुआ


क़िस्से जारी हैं-रात बाक़ी है
ज़िक्र उसका* किए ज़माना हुआ


हमको अत्फ़ाल* दे रहे हैं सलाह
चुपके सुनते हमें ज़माना हुआ


दिल लगा ऐसा फ़ानी* दुनिया से
दिल को अपना कहे ज़माना हुआ


अब न यादें हैं न हमदर्द कोई
ख़्वाब देखे हमें ज़माना हुआ


हिम्मतें एक तरफ़, दूसरी तरफ़ दुनिया
बीच में हम खड़े - ज़माना हुआ


हम समझदार, ख़ून ठण्डा है
जंग हक़ की लड़े ज़माना हुआ

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संदर्भ:
1) 'उस' से इशारा 'उस' की तरफ़ है
2) अत्फ़ाल=बच्चे,नासमझ,छोटे
3) वाबस्ता=सम्बन्धित
4) फ़ानी=नश्वर, नाशवान

Tuesday, 18 May 2010

बरसों बाद

शे'र कहते बना है बरसों बाद
दर्द से सामना है बरसों बाद

आमना-सामना है बरसों बाद
मामला फिर ठना है बरसों बाद


आज फिर ख़ंजरों का जलसा है
एक सीना तना है बरसों बाद

 
भेड़िए सहमे हैं, कोई वारिस
शेरनी ने जना है बरसों बाद

दोनों मिलना तो चाहते हैं मगर
बीच में फिर अना है बरसों बाद

ज़ुल्म सहने से कब गुरेज़ हमें
हँसते रहना मना है बरसों बाद

सुना उस संगदिल का दामन भी
आँसुओं से सना है बरसों बाद

ख़ुद को ख़ुद से मिलाने की ख़ातिर
फिर कोई पुल बना है बरसों बाद

दिल की पगडण्डी पे निकले हैं ख़याल
याद का वन घना है बरसों बाद

Sunday, 16 May 2010

एक रुबाई

चार दिन की ज़िन्दगी में उम्र भर के वायदे

पीढ़ियों की दुश्मनी के ख़ानदानी क़ायदे

दिल की दौलत बाँट कर तू जीत ले सारा जहाँ

वर्ना गिनता रह टके औ कौड़ियों के फ़ायदे

Thursday, 13 May 2010

जाँ-ब-लब, तुझ नज़र : एक छोटी बह्र की तुक और ग़ज़ल

छोटी बह्र मेरी ज़ाती पसंद है। मुश्किल जो होती है, ऐसा सुना है। पहले भी मैंने छोटी बह्र में कई बार कही हैं ग़ज़लें, मगर अपने आप से एक वादा था कि पहले का कहा हुआ यहाँ नहीं लाऊँगा, और फिर इतनी छोटी बह्र में इसके पहले कहा भी सिर्फ़ एक बार है। अब ये रचना जनाब वीनस 'केशरी' से किया हुआ वादा भी है, और एक तजुर्बा भी, इसी में तुकबन्दी भी है और ग़ज़ल भी-
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हम इधर
दम उधर


बेवजह
ग़म-न-कर


यूँ न फिर
दर-ब-दर


हौसला
रख मगर


अर्श ला
फ़र्श पर


बस ज़रा
रख सबर


चुन नई
रहगुज़र


अब सुकूँ
अब सफ़र


रोज़ जी
रोज़ मर


जाँ-ब-लब
तुझ नज़र


फ़ितनागर
बे-ज़रर


बेख़बर
अब-न-डर


देख ले
भर नज़र


दर्द को
प्यार कर


क्या अगर
क्या मगर


रञ्जिशें
तर्क कर


ला दुआ-
में असर


है न "वो"
जल्वागर


बन्दे-ग़म
बख़्तवर


दश्ते-दिल
बे-शजर


तिश्नालब
हर लहर


चश्मो-रुख़
तर-ब-तर


तेग़ो-तंज़
बे-असर


इर्स-ए-इश्क़
जाम:दर


अश्क़ो-वक़्त
बख़्यागर

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अर्श = आकाश, आस्माँ, ऊपरवाला
जाँ-ब-लब = जब जान होठों तक चली आए, जान निकलने ही वाली हो
तुझ नज़र = (प्राचीन उर्दू प्रयोग) तेरी निगाह पड़ने से, (या) तुझको समर्पित
फ़ितनागर = साज़िशी, लोगों को भड़का कर उपद्रव / दंगा कराने वाला, षड्यंत्रकारी
(यहाँ 'त' आधा होना चाहिए मगर टाइप करने में जुड़ कर फ़ित्नागर हो जाता है)

बे-ज़रर = जिससे कोई हानि न पहुँचे, बेहद सीधा-सादा
रञ्जिश = वैमनस्य, नाराज़गी, ख़फ़गी, दुश्मनी
तर्क = परित्याग, छोड़ना
जल्व:गर = प्रकट, रूनुमा
बन्दे-ग़म = प्रेम का फ़ंदा, दु:ख का फ़ंदा (यहाँ अर्थ है - प्रेम के फंदे में [फँसा हुआ है जो]
बख़्तवर = सौभाग्यशाली, ख़ुशनसीब, बख़्तयार
दश्ते-दिल = हृदय का वन (जंगल)
शजर = पेड़, वृक्ष
तिश्नालब = प्यासे होंठ वाला/वाली
चश्मो-रुख़ = आँखें और गाल
तेग़ो-तंज़ = तलवार और ताने
अश्क़ो-वक़्त = आँसू और समय
इर्स-ए-इश्क़ ; इर्स = परम्परा, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली परम्परा, इर्से-इश्क़ = प्रेम की परम्परा
जाम:दर = कपड़े फाड़ने वाला; शोकातिरेक से या पागलपन, जुनून से
बख़्य:गर = तुरपाई करने वाला, सिलनेवाला, यहाँ (दिल के) घाव/ज़ख़्म भरने के अर्थ में प्रयुक्त