ज़िक्र होगा तेरा ख़ामोश मैं हो जाऊँगा
इसी ख़ामोशी को मैं उम्र भर निभाऊँगा
टूट सकता था तेरी झूठी क़सम सा मैं भी
ये क़सम ली है कि अब मैं न क़सम खाऊँगा
ख़ाब-दर-ख़ाब तेरी सहमी सी हर चाहत को
अक्स-बर-अक्स* मैं तामीर* कर दिखाऊँगा
क़तरा-क़तरा मैं तेरी प्यास पे बादल सा घिरूँ
होठों की सीप में गौहर* सी शफ़क* पाऊँगा
याद बनकर मैं चला आऊँगा तन्हाई में
लौटते वक़्त मैं पलकों से ढुलक जाऊँगा
मैं जो बिछड़ा तो बिछ्ड़ जाऊँगा गुज़रे पल सा
वक़्त जैसा तेरे हाथों से निकल जाऊँगा
वक़्त से आगे बहुत आगे निकलना है मुझे
ख़ुद से मिलने को अभी वक़्त न दे पाऊँगा
गले लग कर किसी मासूम गुज़ारिश* जैसा
बेबसी बन के मैं ख़ामोश रह न पाऊँगा
तू ख़ुशी की तरह दो पल में मुझे छोड़ भी दे
साथ सदमे सा तेरा उम्र भर निभाऊँगा
मैं आफ़ताब* का वारिस हूँ रात भर के लिए
ख़ला होते ही, मैं जुगनू सा चमक जाऊँगा
कोने-कोने से ये तारीक़ी* मिटा कर शब* भर
सुब्ह होगी तेरी, मैं चाँद सा ढल जाऊँगा
ज़र्रा-ज़र्रा* मेरी ख़ुश्बू से रहेगा आबाद
मैं लख़्त-लख़्त* हवाओं में बिखर जाऊँगा
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अमरेन्द्र जी! आप अब तो संतुष्ट हैं?
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अक्स-बर-अक्स = हर छवि या प्रतिबिम्ब
गौहर = मोती
शफ़क = उषा की चमक (यहाँ मोती की चमक)
ज़र्रा-ज़र्रा = कण-कण
लख़्त-लख़्त = टुकड़ा-टुकड़ा
तारीक़ी = अंधकार
शब = रात
तामीर = साकार, निर्मित
आफ़ताब = सूर्य
गुज़ारिश = प्रार्थना, इच्छा
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