ये मेरे वो शे'र और रुबाई हैं जिन्हें कभी कहीं पुर्ज़ों पे लिख के भूला, जब मिले तो टुकड़ों को इकट्ठा करते-करते जो कुछ बचा वो आप को नज़राने के तौर पर सौंपता हूँ। ये मेरे दीवान में भी इसी शक्ल में शामिल होंगे, सिवाय उन अशआर के जिन्हें थोड़ा फेर-बदल के साथ ग़ज़ल की शक्ल दी जा सकी है।
इन में कई जगह आईन की पाबन्दी नहीं भी रह पाई है, क्योंकि मिज़ाज अलग है, कहन अलग है, सारा माहौल जदीद है।
नींद के गाँव में सुनते हैं ख़्वाब उगते हैं,
हक़ीक़त पेट की निपटा लें तो सोया जाए
भूल से जान कह दिया तुमको,
साथ तुम भी हमारा छोड़ चले!
सोचते हैं सुबह-सुबह अक्सर-
शाम आएगी तो तुम आओगे!
तुम वफ़ा ख़ुद हो मुज़स्सिम, सिर से पाँव तलक मैं प्यार-
क्यूँ न शोले हों हवा में, क्यूँ न रुत हो बेक़रार!
हम वफ़ा से इस तरह कुछ बेवफ़ाई कर गए-
ज़िंदगी बीमार जब होने लगी हम मर गए
हर घड़ी अब तेरी याद आती है
ज़िन्दगी नज़्म हुई जाती है
दोस्तों से वो छुपाने लगे हैं हाल-ए-दिल
उन्हें यक़ीं है कि हम ख़ैरख़्वाह हैं उनके
मैं जिस जहाँ को बदलने की बात करता था
उसने आख़िर हौले-हौले मुझे बदल डाला
फ़कत उम्मीद है - ख़ुश आप होंगे, और मैं ख़ुश हूँ
ये वो तिन्का है जिसको ले के दरिया पार कर लूँगा
शाहराहों पे मौत आई जब भी रथ पे सवार
ज़िंदगी ख़ुद-ब-ख़ुद फ़ुटपाथ पर चली आई
लोग क्या जानें वो रफ़्तार जहाँ तक पहुँचे
जहाँ पे थे, वहीं पे हैं, किसी पहिए की तरह
हमने देखा उधर तो उनको देखते पाया
ऐसे शर्माए वो हमको भी शर्म आ ही गई
टकटकी बाँध के ढूँढा किए कमर उनकी-
और आख़िर हमारी नज़र भी बल खा ही गई
"आओ-बैठो" "शुक्रिया", "अच्छा चलूँ" "फिर आना कल!"
ना तो आगे बढ़ सके, इससे न हम पीछे हटे
हसीं हर-इक तो नहीं बेवफ़ा ज़माने में
ज़रा ढूँढो कहीं ज़िक्रे-वफ़ा फ़साने में
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जब कल शुरू किया था टाइप करना तो पोस्ट का उन्वान (शीर्षक) बन गया जो अभी लिखा है। फिर इसे टाइप करते-करते पहले शे'र बना, फिर ग़ज़ल की शक़्ल ले ली और इसलिए यहाँ से ग़ायब है ये शे'र। जल्दी ही पूरी ग़ज़ल पेश करूँगा यहीं…
4 comments:
pehle hi sher ne dil jeet liya aur kamar par aankhein balkhana waah janaab kya likha hai...
वाह ! वाह !
कहन का चयन करना भी कमाल का विवेक है !
आप तो इसके मजे खिलाड़ी लग रहे हैं , गोया मेरे
मिजाज को ताड़ गए हैं आप ---
भूल से जान कह दिया तुमको,
साथ तुम भी हमारा छोड़ चले!
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हमने देखा उधर तो उनको देखते पाया
ऐसे शर्माए वो हमको भी शर्म आ ही गई
..........
टकटकी बाँध के ढूँढा किए कमर उनकी-
और आख़िर हमारी नज़र भी बल खा ही गई
.........
और जो हैं वे भी कम नहीं है ... मज़ा आ गया !
नींद के गाँव में सुनते हैं ख़्वाब उगते हैं,
हक़ीक़त पेट की निपटा लें तो सोया जाए
सोचते हैं सुबह-सुबह अक्सर-
शाम आएगी तो तुम आओगे!
हर घड़ी अब तेरी याद आती है
ज़िन्दगी नज़्म हुई जाती है
"आओ-बैठो" "शुक्रिया", "अच्छा चलूँ" "फिर आना कल!"
ना तो आगे बढ़ सके, इससे न हम पीछे हटे
बस एक ही बात... क्या बात है ....इरशाद... मुकर्रर..हर शेर एक नया अंदाज, नया लुत्फ लिए है।
बधाई
ये क्या सोचेंगे ? वो क्या सोचेंगे ?
दुनिया क्या सोचेगी ?
इससे ऊपर उठकर कुछ सोच, जिन्दगीं सुकून
का दूसरा नाम नहीं है
kaka ki shayari
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