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Tuesday, 11 May 2010

मेरी ख़ुश्बू (अब ग़ज़ल)


ज़िक्र होगा तेरा ख़ामोश मैं हो जाऊँगा
इसी ख़ामोशी को मैं उम्र भर निभाऊँगा

टूट सकता था तेरी झूठी क़सम सा मैं भी
ये क़सम ली है कि अब मैं न क़सम खाऊँगा

ख़ाब-दर-ख़ाब तेरी सहमी सी हर चाहत को
अक्स-बर-अक्स* मैं तामीर* कर दिखाऊँगा

क़तरा-क़तरा मैं तेरी प्यास पे बादल सा घिरूँ
होठों की सीप में गौहर* सी शफ़क* पाऊँगा

याद बनकर मैं चला आऊँगा तन्हाई में
लौटते वक़्त मैं पलकों से ढुलक जाऊँगा

मैं जो बिछड़ा तो बिछ्ड़ जाऊँगा गुज़रे पल सा
वक़्त जैसा तेरे हाथों से निकल जाऊँगा

वक़्त से आगे बहुत आगे निकलना है मुझे
ख़ुद से मिलने को अभी वक़्त न दे पाऊँगा

गले लग कर किसी मासूम गुज़ारिश* जैसा
बेबसी बन के मैं ख़ामोश रह न पाऊँगा

तू ख़ुशी की तरह दो पल में मुझे छोड़ भी दे
साथ सदमे सा तेरा उम्र भर निभाऊँगा

मैं आफ़ताब* का वारिस हूँ रात भर के लिए
ख़ला होते ही, मैं जुगनू सा चमक जाऊँगा

कोने-कोने से ये तारीक़ी* मिटा कर शब* भर
सुब्ह होगी तेरी, मैं चाँद सा ढल जाऊँगा

ज़र्रा-ज़र्रा* मेरी ख़ुश्बू से रहेगा आबाद
मैं लख़्त-लख़्त* हवाओं में बिखर जाऊँगा


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अमरेन्द्र जी! आप अब तो संतुष्ट हैं?
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अक्स-बर-अक्स = हर छवि या प्रतिबिम्ब
गौहर = मोती
शफ़क = उषा की चमक (यहाँ मोती की चमक)
ज़र्रा-ज़र्रा = कण-कण
लख़्त-लख़्त = टुकड़ा-टुकड़ा
तारीक़ी = अंधकार
शब = रात
तामीर = साकार, निर्मित
आफ़ताब = सूर्य
गुज़ारिश = प्रार्थना, इच्छा
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9 comments:

दिलीप said...

waah naayaab gazal

Amrendra Nath Tripathi said...

वाह ! सुन्दर !
शुरुआत से ही एक आकर्षण है , आरंभिक शेर से ही |
कुछ शेर तो बहुत ही अच्छे लगे ---
.........
टूट सकता था तेरी झूठी क़सम सा मैं भी
ये क़सम ली है कि अब मैं न क़सम खाऊँगा ..
.......
याद बनकर मैं चला आऊँगा तन्हाई में
लौटते वक़्त मैं पलकों से ढुलक जाऊँगा
.......
ज़र्रा-ज़र्रा* मेरी ख़ुश्बू से रहेगा आबाद
मैं लख़्त-लख़्त* हवाओं में बिखर जाऊँगा
........
........
हाँ , इस गजल में आद्यंत एक अन्विति ढूँढने का
प्रयास कर रहा था पर असफल रहा !
.........
.........
हुजूर ! पूर्णतया संतुष्ट हूँ | पहले शब्दार्थ देख लेता हूँ फिर
गजल पढ़ना शुरू करता हूँ | काफी आसानी होती है , अर्थ-ग्रहण में |
आभारी हूँ आपका

संजय भास्‍कर said...

ग़ज़ब ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

प्रवीण पाण्डेय said...

एक एक वाक्य अपने में भाव-पूर्णता लिये हुये हैं । आपके हृदय में भावों का जल कितने मीटर पर निकल आता है ? हम तो अपने मेहनत की पसीने की बूँद लिये घूमते हैं ।

Asha Joglekar said...

कमाल की गज़ल है । बस मजा आगया । एक एक शेर लाजवाब ।
ज़र्रा-ज़र्रा* मेरी ख़ुश्बू से रहेगा आबाद
मैं लख़्त-लख़्त* हवाओं में बिखर जाऊँगा
वाह ।

Mrityunjay Kumar Rai said...

nice ghazal

also thanx for visiting my blog
http://qsba.blogspot.com/
http://madhavrai.blogspot.com/

Padm Singh said...

सारे शे'र अच्छे लगे ... एहसासों की गहराई से निकले एक एक शेर ... लेकिन सानुरोध सविनय कहना चाहूँगा कि काफिये की कमी लगी (सविनय)

Himanshu Mohan said...

@दिलीप
शुक्रिया!

@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
अन्विति थी ही नहीं, ग़ज़ल के अनुसार भाई! धन्यवाद

@संजय भास्कर
शुक्रिया! भाई लिखने की बात नहीं, दिल से कहने की है; ज़बर्दस्ती जब कुछ लिख देता हूँ तो वो बात नहीं आती, न पसन्द करेंगे आप लोग।

@प्रवीण पाण्डेय
"पसीने की बूँद लिये घूमते हैं"
और हम उन्हीं बूँदों पे झूमते हैं! अब अगर पानी निकला तो क्या होगा? सैलाब - भावों का?

@ Mrs. Asha Joglekar
आप आशीष बनाए रहें, इसी में हमारी सबसे बड़ी ख़ुशी है -
"बड़ों की दुआओं की कामिल नज़र हो,
तो आसान ये मुश्किलों का सफ़र हो
द्ग़ा-झूठ-रंजिश-फ़रेबों से बचकर
मुहब्बत का बस सबके दिल पे असर हो"

इसी के साथ प्रणाम करता हूँ।

@ mrityunjay kumar rai
thanx dude!

@ PADMSINGH
आपकी प्रशंसा का आभार, काफ़िये की कमी अगर थी, तो लगनी ही थी भाई। ज़ाहिर है कि दमाग़ ने दख़्ल नहीं रखा इस रचना में, जो सिर्फ़ दिल से हुई। अभी कुछ और रचनाओं में ये खटक सकता है, जैसे मेरा तख़ल्लुस का इस्तेमाल न करना मक़्ते में, मगर वो तो अब सर्वमान्य ही हो चला है।
आपको आपके अपनत्व भरे कथन के लिए ये शे'र सौंपता हूँ, (ज़रा संभाल के ले जाइएगा; कहीं जाग गया तो गुर्राने न लगे) :) -
बे-काफ़िया ज़रूर हूँ, बे-कैफ़ नहीं हूँ
जो होना चाहता था, वो सद हैफ़! नहीं हूँ

Unknown said...

क्या बात है हिमांशू भैया दिल के दर्दो सतह को छेड़ दिए