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Friday, 19 March 2010

ग़ज़ल

आज आल्मारी साफ़ करते समय एक पुर्ज़े पर लिखी हुई अपनी एक पुरानी रचना (2007 की) पड़ी मिली। सोचा कि आप को ही पेश कर दूँ-

न दीन और न  ईमान रहा
दिल बुतों पे सदा क़ुर्बान रहा

वो जिसने हम पे लगाई तोहमत
सुना फिर बरसों परेशान रहा

दो घड़ी के सुकून की ख़ातिर
तमाम उम्र वो हैरान रहा

दोस्त को दोस्त समझने वाला
दोस्ती करके परेशान रहा

कहे औलादों की दानिशमन्दी
"हमारा बाप तो नादान रहा"

खुले गेसू, ये तबस्सुम, ये अदा!
सुना कल फिर कोई मेहमान रहा

घर की बुनियाद थी दीवारों पे
घर में रिश्ते नहीं सामान रहा

उन्होंने हिन्दी न समझी न पढ़ी
उनका हिन्दी पे ये एहसान रहा

ऐसे हालात में कह पाना ग़ज़ल
यक़ीनन सख़्त इम्तेहान रहा

आदाब!

5 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

बहुत सुन्दर! और पुर्जे कहां हैं!?
वर्ड वैरीफिकेशन हटा कर गज़ल को मुक्त करें!

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

बहुत सुन्दर है बन्धु..वर्ड वैरीफिकेशन हटाये तो लोगो को कमेन्ट करने मे आसानी रहे..

Himanshu Mohan said...

जनाब! तामील हो गई है।

PD said...

गजब साहब गजब..

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

प्रभावशाली ग़ज़ल है. दाद कुबूल करें.

- sulabh