लोग पत्थर उठाए फिरते हैं
और हम सर उठाए फिरते हैं
दुश्मनों से गिला भला कैसा
दोस्त ख़ंजर उठाए फिरते हैं
जब कहे बादबाँ* - "चलो", चल दें!
हम भी लंगर उठाए फिरते हैं
ग़ैर पे उँगली उठे या न उठे-
हम पे अक्सर उठाए फिरते हैं
आस्माँ तू उठा उन्हें जो तुझे-
रोज़ सर पर उठाए फिरते हैं
---------------------------------------
बादबाँ = पाल के सहारे चलने वाली नौका का नाविक-निर्देशक (कैप्टेन : आज के जलयान-पोत-नौका का)
यहाँ भावार्थ ऊपर से बुलावा आने और उसके लिए आसक्ति का लंगर उठाकर तैयार बैठे होने का है।
12 comments:
आस्माँ तू उठा उन्हें जो तुझे-
रोज़ सर पर उठाए फिरते हैं
वाह बहुत सुन्दर गज़ल
दुश्मनों से गिला भला कैसा
दोस्त ख़ंजर उठाए फिरते हैं
अच्छी पंक्तियाँ बन पड़ी है हिमांशु जी। खूबसूरत भाव।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत बेहतरीन गज़ल...वाह!!
बेकल उत्साही साहेब को कभी सुना था किसी मंच से..दो शेर याद आते हैं. स्मृति से लिख रहा हूँ..कहीं चूक हो सकती है..:)
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
इधर भी अहले-जूनूँ सर बदलते रहते हैं.
हम एक बार जो बदले तो आप रुठ गये
मगर जनाब तो अक्सर बदलते रहते हैं.
पहला शेर देख याद आया!!
आस्माँ तू उठा उन्हें जो तुझे-
रोज़ सर पर उठाए फिरते हैं
बहुत खूब ! अच्छी ग़ज़ल है ... बधाई !
एक बार बस ऐतबार हो जाये,
कलम कर दो, सर झुकाये फिरते हैं
बढ़िया ग़ज़ल.
एक पैरोडी बनाने की त्वरित प्रेरणा मिली. सो धन्यवाद. और आपको समर्पित :)
मुलाहिजा फरमाएँ:
नेता टोपी उठाए फिरते हैं
लोग चप्पल उठाए फिरते हैं
ठेकेदारों से गिला भला कैसा
अफसर चेक उठाए फिरते हैं
जब कहे पंडित चलो चल दें
हम भी रसीद उठाए फिरते हैं
हम पे उँगली उठे या न उठे
हम तो अक्सर उठाए फिरते हैं
चिंता न कर रवि वो रोज
आस्माँ सर पर उठाए फिरते हैं
ज्ञानदत्त जी ईमेल पर -
Friday, June 4, 2010 7:49 PM
Dear Himanshu,
I do not much understand the Ghazal poetry, except when the words and impact is really excellent. And this is one of those!
With Best Regards,
Gyandutt Pandey
CFTM, North Central Railway
Allahabad - India
bahut khub
फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
बहुत बढिया ...
ब्लांक पर आने व टिप्पणी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
आस्माँ तू उठा उन्हें जो तुझे-
रोज़ सर पर उठाए फिरते हैं
वाह बहुत सुन्दर गज़ल
आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।
आस्माँ तू उठा उन्हें जो तुझे-
रोज़ सर पर उठाए फिरते हैं !!
वाह, अद्भुत अभिव्यक्ति.
Post a Comment