यह नेट पर पूर्वप्रकाशित रचना है - अनुभूति पर - पूर्णिमा वर्मन जी के सौजन्य से। आज आप लोगों की सेवा में प्रस्तुत है, सादर:
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बाक़ी-बाक़ी सी प्यास मैं भी हूँ
गो उफ़नता गिलास मैं भी हूँ
वो अकेला दरख़्त यादों में गुम
उसी के आस-पास मैं भी हूँ
हमक़दम वक़्त के बदलता रहा
अब ज़रा बदहवास मैं भी हूं
मेरे होठों पे तबस्सुम ही सही,
दोस्त मेरे! उदास मैं भी हूँ
आइनों में भी आपका चेहरा!
आपके हमशनास मैं भी हूँ।
ज़ुह्द हो या उसूफ़े-शौक़ का दौर
मह्वे-तश्बीशो-यास मैं भी हूँ
उसकी यादों का बक्स ज़ंगशुदा
इक पुराना लिबास मैं भी हूँ
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तबस्सुम: मुस्कान
मह्वे-तश्बीशो-यास : निराशा और चिन्ता के बीच,
मह्व : बीच में
तश्बीश: फ़िक्र, तरद्दुद, परेशानी
यास: निराशा
हमशनास : उसी सूरत/पहचान वाला, हमशक्ल, हू-ब-हू
ज़ुह्द: संयम, आत्मनिग्रह, अपने पे क़ाबू रखना
उसूफ़े-शौक़: लिप्सा का उफ़ान, भोग-विलास की तीव्रता
4 comments:
nice
सागर अमृत से जब हम लेकर ही आये,
तब वे कहते, शाबास मैं भी हूँ ।
आपकी गज़ल के टेस्ट पर प्रवीण जी का ट्वेंटी-ट्वेंटी. :-)
मेरे होठों पे तबस्सुम ही सही,
दोस्त मेरे! उदास मैं भी हूँ
apni udaasi ko chhupaya kyun?
chhupa le gaye they to bataya kyun?
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