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Sunday 2 May, 2010

चन्द और पसन्दीदा अशआर

आप सब ने जो पसन्द किया पिछ्ली बार दूसरों का क़लाम, तो आज ख़ाली बैठा था - याददाश्त के सहारे पेश हैं चन्द और मेरे पसंदीदा अशआर -

अशआर ही तो ज़ेहन में गूँजें हैं रात-दिन
और मुझमें नयी जान सी फूँकें हैं रात-दिन
-'मोहन'


यूँ उम्र हमने काटी, दीवाना जैसे कोई
पत्थर हवा में फेंके-पानी पे नाम लिक्खे
- क़ैसर-उल-जाफ़री


उनका ज़िक्र, उनका तसव्वुर, उनकी याद!
कट रही है ज़िन्दगी आराम की !
- शकील बदायूँनी


दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है


दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है


किसको क़ैसर पत्थर मारूँ, कौन पराया है
शीशमहल में इक-इक चेहरा अपना लगता है
- क़ैसर-उल-जाफ़री


इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है
- मुनव्वर राना


अजब दुनिया है! नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी चादर उठाते हैं


तुम्हारे शहर में मैयत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छ्प्पर भी सब मिलकर उठाते हैं


इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं
- मुनव्वर राना


बाहम सुलूक थे तो उठाते थे नर्म-गर्म
काहे को मीर कोई दबे, जब बिगड़ गई
- मीर तक़ी 'मीर'


आज सोचा तो आँसू भर आए
मुद्दतें हो गईं मुस्कराए


हर क़दम पे उधर मुड़ के देखा
उनकी महफ़िल से हम उठ तो आए


दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं
याद इतना भी कोई न आए
- क़ैफ़ी 'आज़मी'


ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले या हो गुनाह के बाद


हवस ने तोड़ दी बरसों की साधना मेरी
गुनाह क्या है ये जाना मगर गुनाह के बाद
- कृष्ण बिहारी 'नूर'


वो लम्हा जब मेरे बच्चे ने माँ कहा मुझको
मैं एक शाख़ से कितना घना दरख़्त हुई
- हुमेरा रहमान


इश्क़ के समझने को वक़्त चाहिए जानाँ
दो दिनों की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं
- परवीन शाकिर


फड़फड़ाती रहीं कितनी उदास तारीख़ें
उम्र रह गई महज़ एक डायरी बनकर
-'मोहन'


हमसे मजबूर का ग़ुस्सा भी अजब बादल है
अपने ही दिल से उठे - अपने ही दिल पर बरसे
- बशीर 'बद्र'

उसकी बातें, उसकी यादें, उसकी धुन में रहते हैं
धरती पर लौटें तो सोचें - लोग हमें क्या कहते हैं
-'मोहन' 


चार दिन के हुस्न पर तुमको बुतो -
ये मिज़ाज, इतना मिज़ाज, ऐसा मिज़ाज  !


मुम्किन नहीं है ऐसी घड़ी कोई बना दे-
जो गुज़रे हुए वक़्त के घण्टों को बजा दे
-नामालूम


और दो-चार अशआर अब चलते-चलते शराब पर भी हो जाएँ? मुलाहिज़ा फ़र्माइए-


पानी किसी हसीं की नज़र से उतार दो
नुस्ख़ा है ये भी इक कसीदा-ए-शराब का
-नामालूम


चाप सुन कर जो हटा दी थी उठा ला साक़ी
शेख़ साहब हैं, मैं समझा था मुसलमाँ है कोई
-नामालूम

किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वायज़
मैं अपना जाम उठाता हूँ तू क़िताब उठा


यहाँ लिबास की क़ीमत है, आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े  दे- शराब कम  कर  दे
- सुमत प्रकाश "शौक़"

11 comments:

Shekhar Kumawat said...

bahut khub


http://rajasthanikavitakosh.blogspot.com/

Gyan Dutt Pandey said...

वाह, वास्तव में सभी पसंदीदा हैं।

तुम्हारे शहर में मैयत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छ्प्पर भी सब मिलकर उठाते हैं


यहां शहर में बस टिप्पणी ठेलते हैं - श्रॄद्धांजलि (श्रद्धांजलि की टांग तोड़ते!)

अजय कुमार said...

एक से बढ़कर एक नायाब शेर , शुक्रिया

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji said...

ये सब याद हैं !!
हमने भी कई बार कोशिश की थी पर........
हा हा हा
कुछ तो याद है हमें भी..
१. मतलब छुपा हुआ है यहाँ हर सवाल में...(आगे याद नहीं)
२. एकतरफ उसका घर एक तरफ मयकदा...(आगे याद नहीं)

प्रवीण पाण्डेय said...

इतना हैवी डोज़ दे दिये । कितनी लम्बी बीमारी समझ लिये थे हमारे दिल की ?

Udan Tashtari said...

सभी एक से बढ़्कर एक..

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ ख़फ़ा होती है जब मुझसे तो रो देती है
- मुनव्वर राना

क्या बात है!!!

एक सुनिये आलोक श्रीवास्तव जी का:

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
धीरे-धीरे कर देती है जाने कब ‘तुरपाई’ अम्मा

daanish said...

हुज़ूर !
आपका इंतेखाब (चुनाव)
लाजवाब है
बहुत उम्दा अश`आर पढवा दिए आपने
और मेरी हौसला-अफजाई में
जो तरतीब लगाई आपने
वो अपने आप में एक मिसाल है
वो , आपके बढ़िया शेर
आपके ब्लॉग पर कब लग रहे हैं जनाब ??

Himanshu Mohan said...

ज़र्रानवाज़ी का शुक्रिया, मैंने बीच में इस ब्लॉग पर पोस्टें बन्द कर रखी थीं, मगर ज़्याद:तर लोग यहीं आ रहे थे, सो फिर शुरू करनी पड़ीं।
वो अशआर मैंने संगम-तीरे पर लगाए थे, आपने याद दिलाया है तो यहाँ भी लगा देता हूँ।
आप के आने का शुक्रिया,

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

मुनव्वर राणा का तो ’मा’ पर एक्सपर्टिज है.. उनके सारे शेर बडे उम्दा होते है..

सारे शेर नायाब है..

Amrendra Nath Tripathi said...

क्या कहूँ साहब ..
एक से बढ़कर एक हैं सब !
ऐसे रखते रहिये , मिजाजों का
इन्द्रधनुषी रूप-रंग हममें बस्ता रहेगा ! आभार !

Unknown said...

चक्कर लगा रही है हवा अब भी उसी के पास ....
बुझने से जिस चिराग ने इन्कार कर दिया.......!!!

अगर तुम्हें यकीं नहीं, तो कहने को कुछ नहीं मेरे पास

अगर तुम्हें यकीं है, तो मुझे कुछ कहने की जरूरत नही

मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हें याद रखता हूँ

बातें भूल भी जाऊं लहज़े याद रखता हूँ

महफ़िल में निगाहें जिन लोगों की मुझपे पड़ती हैं

निगाहों के हवाले से वो चेहरे याद रखता हूँ

जरा सा हटके चलता हूँ जमाने की रवायत से

कि जिनपे बोझ मैं डालूं वो कांधे याद रखता हूँ

मैं यूँ तो भूल जाता हूँ खराशें तल्ख बातों की

मगर जो जख्म गहरे दें वो रवैये याद रखता हूँ