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Sunday 30 May, 2010

साक़िया और पिला, और पिला

साक़िया और पिला, और पिला
सितम कम गुज़रे अभी और जिला

कोई शिक्वा, न शिकायत, न गिला
ऐसे देते हैं मुहब्बत का सिला !

इरादतन कुरेदता हो जो ज़ख़्म,
ऐसा दुनिया में पराया न मिला

हमने उसको बना लिया माली
जिसकी मर्ज़ी बिना पत्ता न हिला

वही रिमझिम है - वही इन्द्रधनुष
या ख़ुदा याद फिर उनकी न दिला

Tuesday 25 May, 2010

ज़माना हुआ

हमको रूठे-मने ज़माना हुआ
उनसे बिछड़े-मिले ज़माना हुआ


गर्द आईनों पे, शर्मिन्दा हम
सर झुके ही झुके ज़माना हुआ


अच्छे-अच्छों की नीयतें देखीं
अपनी बिगड़े हुए ज़माना हुआ


क़िस्से जारी हैं-रात बाक़ी है
ज़िक्र उसका* किए ज़माना हुआ


हमको अत्फ़ाल* दे रहे हैं सलाह
चुपके सुनते हमें ज़माना हुआ


दिल लगा ऐसा फ़ानी* दुनिया से
दिल को अपना कहे ज़माना हुआ


अब न यादें हैं न हमदर्द कोई
ख़्वाब देखे हमें ज़माना हुआ


हिम्मतें एक तरफ़, दूसरी तरफ़ दुनिया
बीच में हम खड़े - ज़माना हुआ


हम समझदार, ख़ून ठण्डा है
जंग हक़ की लड़े ज़माना हुआ

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संदर्भ:
1) 'उस' से इशारा 'उस' की तरफ़ है
2) अत्फ़ाल=बच्चे,नासमझ,छोटे
3) वाबस्ता=सम्बन्धित
4) फ़ानी=नश्वर, नाशवान

Tuesday 18 May, 2010

बरसों बाद

शे'र कहते बना है बरसों बाद
दर्द से सामना है बरसों बाद

आमना-सामना है बरसों बाद
मामला फिर ठना है बरसों बाद


आज फिर ख़ंजरों का जलसा है
एक सीना तना है बरसों बाद

 
भेड़िए सहमे हैं, कोई वारिस
शेरनी ने जना है बरसों बाद

दोनों मिलना तो चाहते हैं मगर
बीच में फिर अना है बरसों बाद

ज़ुल्म सहने से कब गुरेज़ हमें
हँसते रहना मना है बरसों बाद

सुना उस संगदिल का दामन भी
आँसुओं से सना है बरसों बाद

ख़ुद को ख़ुद से मिलाने की ख़ातिर
फिर कोई पुल बना है बरसों बाद

दिल की पगडण्डी पे निकले हैं ख़याल
याद का वन घना है बरसों बाद

Sunday 16 May, 2010

एक रुबाई

चार दिन की ज़िन्दगी में उम्र भर के वायदे

पीढ़ियों की दुश्मनी के ख़ानदानी क़ायदे

दिल की दौलत बाँट कर तू जीत ले सारा जहाँ

वर्ना गिनता रह टके औ कौड़ियों के फ़ायदे

Friday 14 May, 2010

सारे सुख़न हमारे झूठ

सारे सुख़न* हमारे झूठ
गाँव सहन* चौबारे झूठ


चना-चबेना हो तो दो-
किश्मिश और छुआरे झूठ


दुनिया सपने जैसा सच
आँख खुली तो सारे झूठ


उनके होठों पर लगते
कितने प्यारे-प्यारे झूठ


परदेसी के वादों पर
कब तक रहें कुँआरे झूठ


अपना कमरा एसी है
सूखा-बाढ़ तुम्हारे झूठ


जन-गण-मन असमञ्जस में
सत्ता के गलियारे झूठ


थाली की रोटी आगे
चन्दा और सितारे झूठ


झूठ सरासर क़ायम है
सच के सारे नारे झूठ


माज़ी* से मुस्तकबिल* तक
सुख के रहे दुलारे झूठ


मँझधारों सच तोड़े दम
तकते रहें किनारे झूठ
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सुख़न = कथन, उक्ति, वादा, बातचीत, कविता, कहावत। (जो कुछ शायर कहे)
सहन = आँगन
माज़ी = अतीत, बीता हुआ
मुस्तक़बिल = भविष्य, आगामी

Thursday 13 May, 2010

जाँ-ब-लब, तुझ नज़र : एक छोटी बह्र की तुक और ग़ज़ल

छोटी बह्र मेरी ज़ाती पसंद है। मुश्किल जो होती है, ऐसा सुना है। पहले भी मैंने छोटी बह्र में कई बार कही हैं ग़ज़लें, मगर अपने आप से एक वादा था कि पहले का कहा हुआ यहाँ नहीं लाऊँगा, और फिर इतनी छोटी बह्र में इसके पहले कहा भी सिर्फ़ एक बार है। अब ये रचना जनाब वीनस 'केशरी' से किया हुआ वादा भी है, और एक तजुर्बा भी, इसी में तुकबन्दी भी है और ग़ज़ल भी-
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हम इधर
दम उधर


बेवजह
ग़म-न-कर


यूँ न फिर
दर-ब-दर


हौसला
रख मगर


अर्श ला
फ़र्श पर


बस ज़रा
रख सबर


चुन नई
रहगुज़र


अब सुकूँ
अब सफ़र


रोज़ जी
रोज़ मर


जाँ-ब-लब
तुझ नज़र


फ़ितनागर
बे-ज़रर


बेख़बर
अब-न-डर


देख ले
भर नज़र


दर्द को
प्यार कर


क्या अगर
क्या मगर


रञ्जिशें
तर्क कर


ला दुआ-
में असर


है न "वो"
जल्वागर


बन्दे-ग़म
बख़्तवर


दश्ते-दिल
बे-शजर


तिश्नालब
हर लहर


चश्मो-रुख़
तर-ब-तर


तेग़ो-तंज़
बे-असर


इर्स-ए-इश्क़
जाम:दर


अश्क़ो-वक़्त
बख़्यागर

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अर्श = आकाश, आस्माँ, ऊपरवाला
जाँ-ब-लब = जब जान होठों तक चली आए, जान निकलने ही वाली हो
तुझ नज़र = (प्राचीन उर्दू प्रयोग) तेरी निगाह पड़ने से, (या) तुझको समर्पित
फ़ितनागर = साज़िशी, लोगों को भड़का कर उपद्रव / दंगा कराने वाला, षड्यंत्रकारी
(यहाँ 'त' आधा होना चाहिए मगर टाइप करने में जुड़ कर फ़ित्नागर हो जाता है)

बे-ज़रर = जिससे कोई हानि न पहुँचे, बेहद सीधा-सादा
रञ्जिश = वैमनस्य, नाराज़गी, ख़फ़गी, दुश्मनी
तर्क = परित्याग, छोड़ना
जल्व:गर = प्रकट, रूनुमा
बन्दे-ग़म = प्रेम का फ़ंदा, दु:ख का फ़ंदा (यहाँ अर्थ है - प्रेम के फंदे में [फँसा हुआ है जो]
बख़्तवर = सौभाग्यशाली, ख़ुशनसीब, बख़्तयार
दश्ते-दिल = हृदय का वन (जंगल)
शजर = पेड़, वृक्ष
तिश्नालब = प्यासे होंठ वाला/वाली
चश्मो-रुख़ = आँखें और गाल
तेग़ो-तंज़ = तलवार और ताने
अश्क़ो-वक़्त = आँसू और समय
इर्स-ए-इश्क़ ; इर्स = परम्परा, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली परम्परा, इर्से-इश्क़ = प्रेम की परम्परा
जाम:दर = कपड़े फाड़ने वाला; शोकातिरेक से या पागलपन, जुनून से
बख़्य:गर = तुरपाई करने वाला, सिलनेवाला, यहाँ (दिल के) घाव/ज़ख़्म भरने के अर्थ में प्रयुक्त

Tuesday 11 May, 2010

मेरी ख़ुश्बू (अब ग़ज़ल)


ज़िक्र होगा तेरा ख़ामोश मैं हो जाऊँगा
इसी ख़ामोशी को मैं उम्र भर निभाऊँगा

टूट सकता था तेरी झूठी क़सम सा मैं भी
ये क़सम ली है कि अब मैं न क़सम खाऊँगा

ख़ाब-दर-ख़ाब तेरी सहमी सी हर चाहत को
अक्स-बर-अक्स* मैं तामीर* कर दिखाऊँगा

क़तरा-क़तरा मैं तेरी प्यास पे बादल सा घिरूँ
होठों की सीप में गौहर* सी शफ़क* पाऊँगा

याद बनकर मैं चला आऊँगा तन्हाई में
लौटते वक़्त मैं पलकों से ढुलक जाऊँगा

मैं जो बिछड़ा तो बिछ्ड़ जाऊँगा गुज़रे पल सा
वक़्त जैसा तेरे हाथों से निकल जाऊँगा

वक़्त से आगे बहुत आगे निकलना है मुझे
ख़ुद से मिलने को अभी वक़्त न दे पाऊँगा

गले लग कर किसी मासूम गुज़ारिश* जैसा
बेबसी बन के मैं ख़ामोश रह न पाऊँगा

तू ख़ुशी की तरह दो पल में मुझे छोड़ भी दे
साथ सदमे सा तेरा उम्र भर निभाऊँगा

मैं आफ़ताब* का वारिस हूँ रात भर के लिए
ख़ला होते ही, मैं जुगनू सा चमक जाऊँगा

कोने-कोने से ये तारीक़ी* मिटा कर शब* भर
सुब्ह होगी तेरी, मैं चाँद सा ढल जाऊँगा

ज़र्रा-ज़र्रा* मेरी ख़ुश्बू से रहेगा आबाद
मैं लख़्त-लख़्त* हवाओं में बिखर जाऊँगा


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अमरेन्द्र जी! आप अब तो संतुष्ट हैं?
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अक्स-बर-अक्स = हर छवि या प्रतिबिम्ब
गौहर = मोती
शफ़क = उषा की चमक (यहाँ मोती की चमक)
ज़र्रा-ज़र्रा = कण-कण
लख़्त-लख़्त = टुकड़ा-टुकड़ा
तारीक़ी = अंधकार
शब = रात
तामीर = साकार, निर्मित
आफ़ताब = सूर्य
गुज़ारिश = प्रार्थना, इच्छा
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Monday 10 May, 2010

मुफ़्लिस के अंदाज़े-बयाँ में, अपना वज्हे-तरब देखा है

ये पोस्ट संगम-तीरे पर हो चुकी थी। उसके बाद मैंने दोबारा इस ब्लॉग को शुरू करने का मन बनाया, क्योंकि दोस्त यहाँ लगातार आ रहे थे, और तभी मुफ़्लिस साहब ने पूछ भी लिया कि कब ये ग़ज़ल पोस्ट होगी। ज़ाहिर है कि उन्होंने संगम-तीरे नहीं देखा था। सो उनकी बात पर मैं इसे यहाँ भी ले आया हूँ। मगर इसका असली मज़ा तभी आएगा जब इसे मुफ़्लिस साहब की उस ग़ज़ल के साथ पढ़ा जाए जिससे प्रेरित होकर यह कही गई-
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जब कोई ग़ज़ल अच्छी लगती है तो उसी बह्र में वहीं कुछ कहने की कोशिश करता हूँ के ये टिप्पणी भी हो जाए और तोहफ़ा भी नज़राने और शुकराने के तौर पर। कभी-कभी ग़ज़ल को ला के पोस्ट भी बना देता हूँ। कितनी पुर्जियाँ तो यूँ ही  पा'माल हो गईं। आप सब का शुक्रिया कि आप की बदौलत कम्प्यूटर पर लिखने से बाद में अगर चाहूँ तो कुछ बचा खुचा मिल तो जाएगा। तो मुफ़्लिस साहब की ताज़ा ग़ज़ल पर टिप्पणी -


हमने आकर अब देखा है
बह्रो-वज़्न ग़ज़ब देखा है


ग़ज़ल कुआँरे हाथों मेंहदी
रचने सा करतब देखा है


ढाई आखर पढ़ते हमने
क़ैस* सर-ए-मकतब* देखा है


शौक़ बहुत लोगों के देखे
हुनर मगर ग़ायब देखा है


टूटी खाट, पुरानी चप्पल
शायर का मन्सब* देखा है


मुफ़्लिस के अंदाज़े बयाँ में
अपना वज्हे-तरब* देखा है


जब-तब हमने सब देखा है
मत पूछो क्या अब देखा है


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सर-ए-मकतब=पाठशाला में, क़ैस=मजनूँ;
वज्हे-तरब=प्रसन्नता/आनन्द का कारण, मन्सब=जागीर, एस्टेट
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मुफ़्लिस साहब की ग़ज़लगोई पसन्द आई, सो ये टिप्पणी दे रहा हूँ। इसे ले जाकर अपनी पोस्ट भी सोचता हूँ बना दूँ के लोग देख सकें…
बहुत अच्छे, जनाब मुफ़्लिस साहब! जारी रहिए…

Saturday 8 May, 2010

चन्द अशआर जो तन्हा रहे जवानी भर (ग़ज़ल)

सुकूँ से बैठ के सुनना - सुनाना होना था
तुम्हें भी आज ही क्योंकर रवाना होना था

चन्द अशआर जो तन्हा रहे जवानी भर-
इक न इक रोज़ तो इनको दिवाना होना था

आके इस उम्र में बदनाम हुए जब तुमको
गँवा के होशो-ख़िरद भी सयाना होना था

ख़ैर मशहूर तो दिल का फ़साना होना था
मगर कुछ दिन तो अभी आना-जाना होना था

जहाँ बरसाने की राधा को टेरे है बंसी-
गली मोहन की - हमारा ठिकाना होना था

Monday 3 May, 2010

चन्द अशआर जो तन्हा रहे

ये मेरे वो शे'र और रुबाई हैं जिन्हें कभी कहीं पुर्ज़ों पे लिख के भूला, जब मिले तो टुकड़ों को इकट्ठा करते-करते जो कुछ बचा वो आप को नज़राने के तौर पर सौंपता हूँ। ये मेरे दीवान में भी इसी शक्ल में शामिल होंगे, सिवाय उन अशआर के जिन्हें थोड़ा फेर-बदल के साथ ग़ज़ल की शक्ल दी जा सकी है।
इन में कई जगह आईन की पाबन्दी नहीं भी रह पाई है, क्योंकि मिज़ाज अलग है, कहन अलग है, सारा माहौल जदीद है।


नींद के गाँव में सुनते हैं ख़्वाब उगते हैं,
हक़ीक़त पेट की निपटा लें तो सोया जाए


भूल से जान कह दिया तुमको,
साथ तुम भी हमारा छोड़ चले!


सोचते हैं सुबह-सुबह अक्सर-
शाम आएगी तो तुम आओगे!


तुम वफ़ा ख़ुद हो मुज़स्सिम, सिर से पाँव तलक मैं प्यार-
क्यूँ  न   शोले   हों   हवा  में,  क्यूँ   न   रुत   हो   बेक़रार!


हम वफ़ा से इस तरह कुछ बेवफ़ाई कर गए-
ज़िंदगी बीमार जब होने लगी हम मर गए


हर घड़ी अब तेरी याद आती है
ज़िन्दगी  नज़्म  हुई  जाती  है


दोस्तों से वो छुपाने लगे हैं हाल-ए-दिल
उन्हें यक़ीं है कि हम ख़ैरख़्वाह हैं उनके


मैं जिस जहाँ को बदलने की बात करता था
उसने आख़िर हौले-हौले मुझे बदल डाला


फ़कत उम्मीद है - ख़ुश आप होंगे, और मैं ख़ुश हूँ
ये वो तिन्का है जिसको ले के दरिया पार कर लूँगा


शाहराहों पे मौत आई जब भी रथ पे सवार
ज़िंदगी ख़ुद-ब-ख़ुद फ़ुटपाथ पर चली आई


लोग क्या जानें वो रफ़्तार जहाँ तक पहुँचे
जहाँ पे थे, वहीं पे हैं, किसी पहिए की तरह


हमने देखा उधर तो उनको देखते पाया
ऐसे शर्माए वो हमको भी शर्म आ ही गई


टकटकी बाँध के ढूँढा किए कमर उनकी-
और आख़िर हमारी नज़र भी बल खा ही गई


"आओ-बैठो" "शुक्रिया", "अच्छा चलूँ" "फिर आना कल!"
ना तो आगे बढ़ सके, इससे न हम पीछे हटे



हसीं हर-इक तो नहीं बेवफ़ा ज़माने में
ज़रा ढूँढो कहीं ज़िक्रे-वफ़ा फ़साने में


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जब कल शुरू किया था टाइप करना तो पोस्ट का उन्वान (शीर्षक) बन गया जो अभी लिखा है। फिर इसे टाइप करते-करते पहले शे'र बना, फिर ग़ज़ल की शक़्ल ले ली और इसलिए यहाँ से ग़ायब है ये शे'र। जल्दी ही पूरी ग़ज़ल पेश करूँगा यहीं…

Sunday 2 May, 2010

चन्द और पसन्दीदा अशआर

आप सब ने जो पसन्द किया पिछ्ली बार दूसरों का क़लाम, तो आज ख़ाली बैठा था - याददाश्त के सहारे पेश हैं चन्द और मेरे पसंदीदा अशआर -

अशआर ही तो ज़ेहन में गूँजें हैं रात-दिन
और मुझमें नयी जान सी फूँकें हैं रात-दिन
-'मोहन'


यूँ उम्र हमने काटी, दीवाना जैसे कोई
पत्थर हवा में फेंके-पानी पे नाम लिक्खे
- क़ैसर-उल-जाफ़री


उनका ज़िक्र, उनका तसव्वुर, उनकी याद!
कट रही है ज़िन्दगी आराम की !
- शकील बदायूँनी


दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है


दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है


किसको क़ैसर पत्थर मारूँ, कौन पराया है
शीशमहल में इक-इक चेहरा अपना लगता है
- क़ैसर-उल-जाफ़री


इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है
- मुनव्वर राना


अजब दुनिया है! नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी चादर उठाते हैं


तुम्हारे शहर में मैयत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छ्प्पर भी सब मिलकर उठाते हैं


इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं
- मुनव्वर राना


बाहम सुलूक थे तो उठाते थे नर्म-गर्म
काहे को मीर कोई दबे, जब बिगड़ गई
- मीर तक़ी 'मीर'


आज सोचा तो आँसू भर आए
मुद्दतें हो गईं मुस्कराए


हर क़दम पे उधर मुड़ के देखा
उनकी महफ़िल से हम उठ तो आए


दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं
याद इतना भी कोई न आए
- क़ैफ़ी 'आज़मी'


ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले या हो गुनाह के बाद


हवस ने तोड़ दी बरसों की साधना मेरी
गुनाह क्या है ये जाना मगर गुनाह के बाद
- कृष्ण बिहारी 'नूर'


वो लम्हा जब मेरे बच्चे ने माँ कहा मुझको
मैं एक शाख़ से कितना घना दरख़्त हुई
- हुमेरा रहमान


इश्क़ के समझने को वक़्त चाहिए जानाँ
दो दिनों की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं
- परवीन शाकिर


फड़फड़ाती रहीं कितनी उदास तारीख़ें
उम्र रह गई महज़ एक डायरी बनकर
-'मोहन'


हमसे मजबूर का ग़ुस्सा भी अजब बादल है
अपने ही दिल से उठे - अपने ही दिल पर बरसे
- बशीर 'बद्र'

उसकी बातें, उसकी यादें, उसकी धुन में रहते हैं
धरती पर लौटें तो सोचें - लोग हमें क्या कहते हैं
-'मोहन' 


चार दिन के हुस्न पर तुमको बुतो -
ये मिज़ाज, इतना मिज़ाज, ऐसा मिज़ाज  !


मुम्किन नहीं है ऐसी घड़ी कोई बना दे-
जो गुज़रे हुए वक़्त के घण्टों को बजा दे
-नामालूम


और दो-चार अशआर अब चलते-चलते शराब पर भी हो जाएँ? मुलाहिज़ा फ़र्माइए-


पानी किसी हसीं की नज़र से उतार दो
नुस्ख़ा है ये भी इक कसीदा-ए-शराब का
-नामालूम


चाप सुन कर जो हटा दी थी उठा ला साक़ी
शेख़ साहब हैं, मैं समझा था मुसलमाँ है कोई
-नामालूम

किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वायज़
मैं अपना जाम उठाता हूँ तू क़िताब उठा


यहाँ लिबास की क़ीमत है, आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े  दे- शराब कम  कर  दे
- सुमत प्रकाश "शौक़"