ज़िन्दगी धूप थी कड़ी
ख़ुशनुमा एक-दो घड़ी
की गईं मुश्किलें खड़ी-
हिम्मतें ख़ुद हुईं बड़ी
ज़िन्दगी इस क़दर सहल !
कुछ यक़ीनन है गड़बड़ी
रात रूमानी वायदा -
सुब्ह ऑफ़िस की हड़बड़ी
नज़र-ए-आशिक तुनकमिज़ाज
जब मिली - तब कहीं लड़ी
दिल का ले-ले के इम्तेहाँ-
रो दी बरसात की झड़ी
ग़म अमावस की रात से-
ख़ुशी हाथों की फुलझड़ी
ग़म अमावस की रात से-
ख़ुशी हाथों की फुलझड़ी
मुस्कराते हों सब अगर-
नज़र देखो कहाँ गड़ी
संग लाएँ वो फ़स्ले-गुल
फेर कर जादुई छड़ी
कुछ तमन्ना भी अपनी कम,
कुछ ज़रूरत नहीं पड़ी
====================
और ये शे'र इश्क़े-हक़ीक़ी में अर्ज़ है:
"हरेक शै में उसका नूर,
सबमें रू-ए-ख़ुदा जड़ी"
सबमें रू-ए-ख़ुदा जड़ी"
ये एक और शे'र पैदाइशी आशिक़ों के लिए अर्ज़ है :
(दर-अस्ल यही वो शे'र है जिससे इस ग़ज़ल का आग़ाज़ हुआ था):
हुस्न उनका लुग़त जदीद
आशिक़ी अपनी बेपढ़ी
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
लुग़त = शब्दकोष
जदीद = आधुनिक, नवीनतम
9 comments:
wah wah
बहुत खूब कहा!!
रात रूमानी वायदा -
सुब्ह ऑफ़िस की हड़बड़ी
:)
ये भी खूब निकाला शेर आपने. आनन्द आ गया.
Aap to Gazab ki sher-o-shayaari karte hain. Maan gaye Apko.
हालात हमसे पूछते थे,
फिर बात हमपे ही मढ़ी ।
कुछ तमन्ना भी अपनी कम,
कुछ ज़रूरत नहीं पड़ी'
- इसी लिए सुखी हैं.
कुछ हम भी तुमसे थे लड़े.
कुछ तुम भी हमसे थी लड़ी.
हम लड़े तो पागल कहलाये,
तुम लड़ी तो.....वाह क्या खूब लड़ी !!
आपकी गज़ल को बर्बाद करने के लिये दण्डाधिकारी हूँ. ;-P
आपकी सुख़न वरी निसंदेह क़ाबिल ए तारीफ़ है.
आप मेरे यहाँ आये आभार!
हमज़बान की नयी पोस्ट पढ़ें.
gazal mei chhipe arth
poori tarah se sabhi ke mn tk
pahunch paa rahe haiN
abhivaadan .
Post a Comment