बहुत आसाँ है रो देना, बहुत मुश्किल हँसाना है
कोई बिन बात हँस दे-लोग कहते हैं "दिवाना है"
हमारी ख़ुशमिज़ाजी पे तुनक-अंदाज़ वो उनका-
"तुम्हें क्यों हर किसी को हमने क्या बोला बताना है?"
मशालें ख़ूँ-ज़दा हाथों में, कमसिन पर शबाबों सी-
"चलो जल्दी चलें,फिर से किसी का घर जलाना है"
ये लाचारी कि किस्सागो हुए हम फ़ित्रतन यारो-
हमारी हर शिकायत पर वो कहते थे "फ़साना है"
किसी की दोस्ती हो तो कड़ी राहें भी कट जाएँ
यहाँ हर सिम्त रिश्ते हैं जो अब मुश्किल निभाना है
मेरी मजबूरियों को तुम ख़ुशी का नाम मत देना
यहाँ तुम भी नहीं हो अब बड़ा मुश्किल ज़माना है
वो मंज़र झील के,जंगल के,ख़ुश्बू के,चनारों के!
इन्हें भी आज ही कम्बख़्त शायद याद आना है
सुख़नवर : शेर-ओ-शायरी का एक दीवाना
मेरी कलम से लिपटे आकर, जाने किस-किस के अरमान मैं ख़ुश शायर कहला कर, आबाद रहें जिनका एहसान
साथी
Twit-Bit
Wednesday, 27 October 2010
Friday, 27 August 2010
अश'आर चन्द यूँ भी
आज के हालात का मैं तब्सरा हूँ
ख़ुश-तबस्सुम-लब मगर अन्दर डरा हूँ
बस गए जो वो किसी शर्त छोड़ते ही नहीं
टूटा-फूटा सा पुराना मकान मेरा दिल!
इस राह पे चलना भी ख़ुद हासिले-सफ़र है
मंज़िल क़रीब है पर दुश्वार रहगुज़र है
आए हैं, मुँह फुलाए बैठे हैं
लगता है ख़ार खाए बैठे हैं
उधर लाल-आँखें, चढ़ी हैं भौंहें
हम इधर दिल बिछाए बैठे हैं
Friday, 20 August 2010
जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए
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जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए
ख़ैरियत-ख़ैरियत का शोर मचाते रहिए
वो जो सह लें, न कहें-उनको सहाते रहिए
वर्ना कह दें तो मियाँ ! चेहरा छुपाते रहिए
शम्मा यादों की मज़ारों पे जलाते रहिए
रोज़ इक बेबसी का जश्न मनाते रहिए
हुस्न गुस्ताख़ तमन्ना से दूर? नामुम्किन!
लाख बारूद को आतिश से बचाते रहिए
या तो खा जाइए, या रहिए निवाला बनते,
शाम के भोज का दस्तूर निभाते रहिए
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और शे'र हैं, अभी फुर्सत नहीं है टाइप करने की. बाद में लाऊँगा...
जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए
ख़ैरियत-ख़ैरियत का शोर मचाते रहिए
वो जो सह लें, न कहें-उनको सहाते रहिए
वर्ना कह दें तो मियाँ ! चेहरा छुपाते रहिए
शम्मा यादों की मज़ारों पे जलाते रहिए
रोज़ इक बेबसी का जश्न मनाते रहिए
हुस्न गुस्ताख़ तमन्ना से दूर? नामुम्किन!
लाख बारूद को आतिश से बचाते रहिए
या तो खा जाइए, या रहिए निवाला बनते,
शाम के भोज का दस्तूर निभाते रहिए
और शे'र हैं, अभी फुर्सत नहीं है टाइप करने की. बाद में लाऊँगा...
Friday, 6 August 2010
उन्होंने कह दिया अच्छा सुख़न है
ज़माना पेश हम से ढंग से आए-
ज़माने को भी कोई तो बताए!
यही सोचे हैं बैठे सर झुकाए
वो देखें आज क्या तोहमत लगाए
उन्होंने कह दिया अच्छा सुख़न है
मेरे अश'आर ख़ुश-ख़ुश लौट आए
मुहब्बत की भी कोई उम्र तय है?
अगर अब है तो फिर आए-न-आए!
झरे दिन जैसे मुट्ठी रेत की, या
उमर-मछली फिसल दरिया में जाए
………उमर-मछ्ली फिसल दरिया में जाए! |
Tuesday, 20 July 2010
सब लोग ज़माने में सितमगर नहीं होते
यह भी मेरी एक पूर्व-प्रकाशित रचना ही है। यह अन्तर्जाल पर और एक साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है। मैंने इसे इसलिए रख छोड़ा था कि जब कभी कुछ नया लेखन न हो पाए - तो ब्लॉग पर तारतम्य बनाए रखने के लिए इसे आप की नज़रे-क़रम के हवाले किया जायगा। सो आज कर रहा हूँ:
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सितमगर: अत्याचारी
फ़न : हुनर, कला, योग्यता
इल्तिफ़ात : अनुग्रह, कृपा, प्रसन्नता (बहुवचन में)
सुख़नवर: बहुत अच्छा शायर, ग़ज़लसरा, ग़ज़लगो
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सब लोग ज़माने में सितमगर नहीं होते
क़द एक हो तो लोग बराबर नहीं होते
होते हैं मददगार - कई बार अजनबी
जिन लोगों से उम्मीद हो-अक्सर नहीं होते
उनको तलाश लेंगे करोड़ों के बीच हम
सारे गुलों के हाथ में पत्थर नहीं होते
क़ुदरत के इल्तिफ़ात से है शायरी का फ़न
सब शे'र कहने वाले भी शायर नहीं होते
हम ही नहीं ग़ज़ल से - हमीं से ग़ज़ल भी है
हम से दिवाने सारे सुख़नवर नहीं होते
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सितमगर: अत्याचारी
फ़न : हुनर, कला, योग्यता
इल्तिफ़ात : अनुग्रह, कृपा, प्रसन्नता (बहुवचन में)
सुख़नवर: बहुत अच्छा शायर, ग़ज़लसरा, ग़ज़लगो
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